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तुम्हारे जाते ही चला आता है
तुम्हारी यादों का कारवां
उड़ता है बीते कल का गुबार
मैं डूब जाता हूँ उसमें और
धूल के छंटते-छंटते
मिल लेता हूँ तुमसे हर रूप में
तुम चाहो या न चाहो
तुम्हारी यादें
तुमसे भी अच्छी लगती हैं
तुम्हारी तरह पास आकर
दूर तो नहीं बैठतीं
जमाने की निगाहों से
भयभीत तो नहीं होतीं
बात करते हुए सकुचाती तो नहीं
मुझे पता है तुम्हारी मजबूरी
मगर उन यादों से जन्मी
कल्पनाओं में
तुम बेहद बिंदास होती हो
यही कल्पनायें विवश करती हैं
तुम्हारी यादों में डूब जाने को
मगर फिर भी यादों से अधिक
रहती है तुम्हारी प्रतीक्षा
क्योंकि तुम्हारा मिलना
यादों के सृजन का
महत्वपूर्ण कारक है
इसलिए आती रहा करो
वक़्त-बेवक़्त किसी भी वक़्त
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रचनाकार-संजय श्रीवास्तव 'कौशाम्बी'
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